Saturday, May 24, 2014
उल्फत में जान निकल जाए
गिरके ना ये फिर संभल जाए, उल्फत में जान निकल जाए
रूह का दीपक तो जला, ये जिस्म चाहे पिघल जाए
मर्जी हो तेरी तो आ जाओ, मेरा आशियां ये बदल जाए
कश्ती समंदर में कैसे रूके, किनारे से जो फिसल जाए.
किसके सहारे जीना है, तन्हाई ही तमन्ना है
हम इस पार, तुम उस पार, बीच में नदी को बहना है
लम्हा दिन महीना बरस, दुख के किनारे मरना है
आधे-अधूरे जीवन पूरे, तेरे बिन अब रहना है.
मैं भी मैं कहां रहा, तू भी तू नहीं रही
कुछ कहने और सुनने की आरजू नहीं रही
मैं भी मैं कहां रहा, तू भी तू नहीं रही
तब हर बात पे होती थी अक्सर ही तकरार
अब किसी बात पे प्यार की गुफ्तगू नहीं रही
फुरसत ही नहीं मिलती कि तेरी याद में रोऊं मैं
तुमको भी मेरे आंसुओं की जूस्तजू नहीं रही
तू चाहती कुछ और, मैं सोचता हूं कुछ और
किसी आईने में हमारी सूरत हूबहू नहीं रही
तूम मेरे दिल में आ चुके हम तेरे दिल से जा चुके
हम कितनी दूर आ चुके, तुम कितनी दूर जा चुके
तुम मेरे दिल में आ चुके, हम तेरे दिल से जा चुके
अब गैर कोई छू ले मुझे तो मुझे भी ऐतराज नहीं
तेरे इश्क में हम जिस्म की हर गैरत को गंवा चुके
इस चांद को तुमसा कहूं तो बुरा लगेगा खुद मुझको
जबसे हमें तुम छोड़ गए, ये चिराग हम बुझा चुके
उसे कौन सा सफर कहूं जिसे हो नसीब न हमसफर
इस जिंदगी की राह को हम दर्द में डुबा चुके
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