Thursday, April 26, 2018

बा -मुश्किल मिली है आज़ादी, ज़रा संभल के रहिये

बा -मुश्किल मिली है आज़ादी, ज़रा संभल के रहिये,
पहना दे बेड़िया फिर से न कोई, ज़रा संभल के रहिये.

ज़र्रे ज़र्रे में मिला है खून शहीदों का वतन वालो,
ऐसी ज़मीने हिंद को न घूरे कोई, ज़रा संभल के रहिये.


खिसका देते हैं पडोसी कुछ नाग हमारे घर में भी,
हमें फन उनका भी कुचलना है, ज़रा संभल कर रहिये.

डटे हैं जांबाज़ सीमा पर आँखें लगाये दुश्मनों पर,
घर के अंदर भी हैं दुश्मन हमारे, ज़रा संभल कर रहिये.

लहराता रहे तिरंगा अज़ीमो शान से हर तरफ,
उठे न कोई बदनज़र उस पर कभी, ज़रा संभल कर रहिये.

Sunday, April 15, 2018

अबके बरस भी वो नहीं आये बहार में

अबके बरस भी वो नहीं आये बहार में,
गुज़रेगा और एक बरस इंतज़ार में.

ये आग इश्क़ की है बुझाने से क्या बुझे,
दिल तेरे बस में है ना मेरे इख़्तियार में.


है टूटे दिल में तेरी मुहब्बत, तेरा ख़याल,
कुछ रंग है बहार के उजड़ी बहार में.

आँसू नहीं हैं आँख में लेकिन तेरे बग़ैर,
तूफ़ान छुपे हुए हैं दिल-ए-बेक़रार में.

Friday, April 6, 2018

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा

किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से
हर जगह ढूँधता फिरता है मुझे घर मेरा


एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा

मुद्दतें बीत गईं ख़्वाब सुहाना देखे
जागता रहता है हर नींद में बिस्तर मेरा

आईना देखके निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ में महफ़ूज़ है पत्थर मेरा