Friday, November 4, 2016

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुये ग़म आते हैं

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम;
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम;

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये;
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम;

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी;
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम;


बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द;
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम;

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती;
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम;

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़';
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम।

No comments:

Post a Comment