कौन सा वो ज़ख्मे-दिल था जो तर-ओ-ताज़ा न था,
ज़िन्दगी में इतने ग़म थे जिनका अंदाज़ा न था,
'अर्श' उनकी झील सी आँखों का उसमें क्या क़ुसूर,
डूबने वालों को ही गहराई का अंदाज़ा न था।
उसे पाया नहीं लेकिन उसको खोना भी नहीं है,
उसके बगैर आंसू लेकर रोना भी नहीं है,
प्यार का रुख नफ़रत में कुछ इस कदर बदला,
अब सोचते है कि उसका कभी होना भी नहीं है।
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